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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


46)

एक महीना और निकल गया। मुकदमे के हाईकोर्ट में पेश होने की तिथि नियत हो गई है। रमा के स्वभाव में फिर वही पहले की-सी भीरूता और ख़ुशामद आ गई है। अफसरों के इशारे पर नाचता है। शराब की मात्रा पहले से बढ़ गई है, विलासिता ने मानो पंजे में दबा लिया है। कभी-कभी उसके कमरे में एक वेश्या ज़ोहरा भी आ जाती है, जिसका गाना वह बडे शौक से सुनता है ।
एक दिन उसने बडी हसरत के साथ ज़ोहरा से कहा, 'मैं डरता हूं, कहीं तुमसे प्रेम न बढ़जाय। उसका नतीजा इसके सिवा और क्या होगा कि रो-रोकर ज़िंदगी काटूं, तुमसे वफा की उम्मीद और क्या हो सकती है!'
ज़ोहरा दिल में ख़ुश होकर अपनी बडी-बडी रतनारी आंखों से उसकी ओर ताकती हुई बोली,हां साहब, हम वफा क्या जानें, आख़िर वेश्या ही तो ठहरीं! बेवफा वेश्या भी कहीं वफादार हो सकती है? '
रमा ने आपत्ति करके पूछा, 'क्या इसमें कोई शक है? '
ज़ोहरा -' 'नहीं, ज़रा भी नहीं ब आप लोग हमारे पास मुहब्बत से लबालब भरे दिल लेकर आते हैं, पर हम उसकी ज़रा भी कद्र नहीं करतीं ब यही बात है न? '
रमानाथ-'बेशक।'
ज़ोहरा--'मुआफ कीजिएगा, आप मरदों की तरफदारी कर रहे हैं। हक यह है कि वहां आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज़ ग़म ग़लत करने के लिए, महज़ आनंद उठाने के लिए। जब आपको वफा की तलाश ही नहीं होती, तो वह मिले क्यों कर- लेकिन इतना मैं जानती हूं कि हममें जितनी बेचारियां मरदों की बेवफाई से निराश होकर अपना आराम-चैन खो बैठती हैं, उनका पता अगर दुनिया को चले, तो आंखें खुल जायं। यह हमारी भूल है कि तमाशबीनों से वफा चाहते हैं, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हैं, पर प्यासा आदमी अंधे कुएं की तरफ दौडे।, तो मेरे ख़याल में उसका कोई कसूर नहीं।'
उस दिन रात को चलते वक्त ज़ोहरा ने दारोग़ा को ख़ुशख़बरी दी, 'आज तो हज़रत ख़ूब मजे में आए ब ख़ुदा ने चाहा, तो दो-चार दिन के बाद बीवी का नाम भी न लें।'
दारोग़ा ने ख़ुश होकर कहा, 'इसीलिए तो तुम्हें बुलाया था। मज़ा तो जब है कि बीवी यहां से चली जाए। फिर हमें कोई ग़म न रहेगा। मालूम होता है स्वराज्यवालों ने उस औरत को मिला लिया है। यह सब एक ही शैतान हैं।'
ज़ोहरा की आमोदरफ्त बढ़ने लगी, यहां तक कि रमा ख़ुद अपने चकमे में आ गया। उसने ज़ोहरा से प्रेम जताकर अफसरों की नजर में अपनी साख जमानी चाही थी, पर जैसे बच्चे खेल में रो पड़ते हैं, वैसे ही उसका प्रेमाभिनय भी प्रेमोन्माद बन बैठा ज़ोहरा उसे अब वफा और मुहब्बत की देवी मालूम होती थी। वह जालपा की-सी सुंदरी न सही, बातों में उससे कहीं चतुर, हाव-भाव में कहीं कुशल, सम्मोहन-कला में कहीं पटु थी। रमा के ह्रदय में नए-नए मनसूबे पैदा होने लगे। एक दिन उसने ज़ोहरा से कहा, 'ज़ोहरा -' जुदाई का समय आ रहा है । दो-चार दिन में मुझे यहां से चला जाना पडेगा । फिर तुम्हें क्यों मेरी याद आने लगी?'
ज़ोहरा ने कहा, 'मैं तुम्हें न जाने दूंगी। यहीं कोई अच्छी-सी नौकरी कर लेना। फिर हम-तुम आराम से रहेंगे ।'
रमा ने अनुरक्त होकर कहा, 'दिल से कहती हो ज़ोहरा? देखो, तुम्हें मेरे सिर की कसम, दग़ा मत देना।'
ज़ोहरा-'अगर यह ख़ौफ हो तो निकाह पढ़ा लो। निकाह के नाम से चिढ़ हो, तो ब्याह कर लो। पंडितों को बुलाओ। अब इसके सिवा मैं अपनी मुहब्बत का और क्या सबूत दूं।'
रमा निष्कपट प्रेम का यह परिचय पाकर विह्नल हो उठा। ज़ोहरा के मुंह से निकलकर इन शब्दों की सम्मोहक-शक्ति कितनी बढ़गई थी। यह कामिनी,जिस पर बडे-बडे रईस फिदा हैं, मेरे लिए इतना बडा त्याग करने को तैयार है! जिस खान में औरों को बालू ही मिलता है, उसमें जिसे सोने के डले मिल जायं, क्या वह परम भाग्यशाली नहीं है? रमा के मन में कई दिनों तक संग्राम होता रहा। जालपा के साथ उसका जीवन कितना नीरस, कितना कठिन हो जायगा। वह पग-पग पर अपना धर्म और सत्य लेकर खड़ी हो जाएगी और उसका जीवन एक दीर्घ तपस्या, एक स्थायी साधना बनकर रह जाएगा। सात्विक जीवन कभी उसका आदर्श नहीं रहा। साधारण मनुष्यों की भांति वह भी भोग-विलास करना चाहता था। जालपा की ओर से हटकर उसका विलासासक्त मन प्रबल वेग से ज़ोहरा की ओर खिंचा। उसको व्रत-धारिणी वेश्याओं के उदाहरण याद आने लगे। उसके साथ ही चंचल वृत्ति की गृहिणियों की मिसालें भी आ पहुचीं। उसने निश्चय किया, यह सब ढकोसला है। न कोई जन्म से निर्दोष है, न कोई दोषी। यह सब परिस्थिति पर निर्भर है।
ज़ोहरा रोज आती और बंधन में एक गांठ और देकर जाती । ऐसी स्थिति में संयमी युवक का आसन भी डोल जाता। रमा तो विलासी था। अब तक वह केवल इसलिए इधर-उधर न भटक सका था कि ज्योंही, उसके पंख निकले, जालिये ने उसे अपने पिंजरे में बंद कर दिया। कुछ दिन पिंजरे से बाहर रहकर भी उसे उड़ने का साहस न हुआ। अब उसके सामने एक नवीन दृश्य था, वह छोटा-सा कुल्हियों वाला पिंज़रा नहीं, बल्कि एक गुलाबों से लहराता हुआ बाग़, जहां की कैद में स्वाधीनता का आनंद था। वह इस बाग़ में क्यों न क्रीडा का आनंद उठाए!

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